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केरल में दलित आन्दोलन और दलित साहित्य-2 (6)

अय्यनकाली सिर्फ सरकार के मान जाने से सन्तुष्ट नहीं हुए. उन्होंने ‘स्वदेशाभिमानी’ में इश्तहार देकर उदार लोगों से अपील की कि वे दलित बच्चों की पढ़ाई में आर्थिक सहयोग दें. सरकार से उन्होंने माँग की कि अछूत बच्चों को सात वर्ष तक वजीफा दिया जाये.21 सभी उपलब्ध मंचों पर अपनी बात रखने और अपने पक्ष में माहौल बनाने में अय्यनकाली की कुशलता चकित करती है. उनके द्वारा आयोजित हड़ताल यद्यपि नेय्यात्तिंकर तालुका तक सीमित रही, लेकिन उसका असर गहरा और व्यापक रहा. इस हड़ताल की समीक्षा करते हुए अय्यनकाली ने मितवादी पत्रिका में जो बयान प्रकाशित कराया उसके अनुसार एक पुलय स्‍त्री का एक दिन का काम छह नायरों के एक दिन के काम के बराबर बैठता है. हड़ताल के चलते जब नायर धान के खेतों में काम करने उतरे तो पानी और कीचड़ के कारण बीमार पड़ गये.22

सरकार को अब तक अछूतों की संगठित शक्ति का अहसास हो गया था इस समाज का प्रतिनिधित्व करने के लिए पीण्के. गोविन्द पिल्लै को श्रीमूलम् प्रजासभा (पॉपुलर असेम्बली) में 1911 में मनोनीत किया गया. प्रजासभा या पॉपुलर असेम्बली त्रावणकोर सरकार द्वारा 1904 में स्थापित की गयी थी. इसमें सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य ही हुआ करते थे. सरकार इसके जरिये जन भावनाओं से अवगत होती थी. अपने कार्यकाल में पीण्के गोविन्द पिल्लै ने पुलयों की बुनियादी समस्याओं को सभा के सामने रखा. इन समस्याओं में आवास, कृषियोग्य भूमि का वितरण, शिक्षा का अधिकार और सार्वजनिक मार्गांे पर चलने की समस्या शामिल थीं. गोविन्द पिल्लै के अनुरोध पर सरकार ने 1912 में पॉपुलर असेम्बली में अय्यनकाली को मनोनीत किया. अय्यनकाली पुलय समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में बुलाये गये. लेकिन उन्होंने सभी दलितों की समस्याओं को सरकार के सामने रखा. उन्होंने शिक्षा के अधिकार को प्रमुखता से उठाया ही साथ में कुछ दूसरे मुद्दे भी रेखांकित किये. सरकार से उन्होंने माँग की कि परती जमीन अछूतों में वितरित की जाये. सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की जाये. असेम्बली में दिये अपने व्याख्यानों में अय्यनकाली ने अछूतों के शोषण को सबसे गम्भीर मुद्दे के रूप में पेश किया.

भूस्वामियों और स्थानीय राजस्व अधिकारियों द्वारा दलितों को उनके निवास स्थानों से बार-बार बेदखल किये जाने पर उन्होंने सरकार का ध्यान खींचा. 1912 से लेकर अय्यनकाली श्रीमूलम् प्रजासभा में दो दशकों तक मनोनीत किये जाते रहे. उधर कोचीन की लेजिस्लेटिव असेंबली में पुलय समुदाय के एक सदस्य केण्पी. वल्लोने को मनोनीत किया गया. इनके असेम्बली में होने के तीन परिणाम निकले (क) सरकारी अधिकारियों के जातिवादी पूर्वग्रहों में कमी आयी. (ख) समय-समय पर अछूत समाज की स्थिति सुधारने के लिए सरकार ने कदम उठाये और (ग) दलित समाज में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भाव जागृत हुआ.23

दलित समाज के उन्नयन को लेकर अय्यनकाली निरन्तर संघर्ष करते रहे. वे न तो सम्पन्न थे न ही पढ़े-लिखे. फिर भी उन्होंने इस स्थिति को अपने मकसद में बाधा नहीं बनने दिया. अपने निकट मित्रों के सहयोग से उन्होंने संघम् की तरफ से मलयालम में एक मासिक पत्रिका निकाली. उनका यह प्रयास तत्कालीन समाज को देखते हुए अभूतपूर्व था. समाज की बाकी जातियोंनम्बूदरी, नायर, ईषव में इस समय तक शिक्षितों की संख्या बढ़ चुकी थी लेकिन पुलय जैसी जाति अब भी शिक्षा से बहुत दूर थी. अय्यनकाली ने इसकी बहुत परवाह नहीं की. उन्होंने लोगों से आग्रह करके पत्रिका के लिए लिखवाया. ‘साधु जन परिपालिनी’ नाम की यह पत्रिका यद्यपि लम्बे समय तक प्रकाशित नहीं हो सकी लेकिन अपनी छोटी अवधि में ही उसने दलितों को उनके अधिकारों से परिचित कराने और उनके संघर्षों से हासिल उपलब्धियों को प्रचारित करने में बहुत सार्थक भूमिका निभायी. शेष समाज को अछूतों की दुरावस्था से वाकिफ कराने में भी इस पत्रिका की भूमिका रही. इसमें मुख्य रूप से दलित समाज के युवा लिखते थे. लेकिन गैर दलितों में प्रगतिशील सोच वाला लेखक समुदाय भी योगदान करता था. चंगनस्सेरी के एक नायर अध्यापक इस पत्रिका के प्रकाशन में नियमित सहायता करते थे. एक दूसरे नायर अध्यापक जाति बहिष्कार की परवाह न कर वेंगनूर के स्कूल में अछूत बच्चों को पढ़ाते थे. लेकिन अय्यनकाली के सबसे भरोसेमन्द और प्रबल समर्थक त्रावणकोर के स्वदेशाभिमानी रामकृष्ण पिल्लै थे.24 सुधारवादी चंगनस्सेरी परमेश्वरन पिल्लै का सहयोग भी उन्हें मिला था.

अय्यनकाली द्वारा शुरू किए गये मुक्ति अभियानों की कड़ी में ‘कल्लुमाला संघर्ष’ बेहद महत्वपूर्ण है. ईषव आन्दोलन पर चर्चा के सिलसिले में हमने देखा था कि केरलीय समाज ने जातिपरक पहचान बनाये रखने के लिए हर जाति-समुदाय के लिए एक खास तरह का पहनावा निश्चित कर रखा था. अछूत स्त्रियां और पुरुष कमर से ऊपर और घुटने से नीचे का हिस्सा ढक नहीं सकते थे. अय्यनकाली इस बाध्यता को गुलामी का सबूत मानते थे. पुलय स्त्रियां कमर से ऊपर का हिस्सा ढकने के लिए मनकों वाली माला पहना करती थीं. इसे ‘कल्लुमाला’ कहा जाता था. मनकों से बनी यह माला ‘कल्लयुम मलयुम’ नाम से भी जानी जाती थी. स्त्रियों को ढेर सारी मालाएँ लादनी पड़ती थीं तब कहीं जाकर अंग-विशेष ढक पाते थे. इसके अलावा वे चूडि़याँ और कानों में लोहे के छल्ले पहनती थीं. यह सब गुलामी के दिनों की निशानियाँ थीं. हालाँकि कानूनी तौर पर यह प्रथा खत्म हुए आधी शताब्दी बीत गयी थी.

कल्लुमाला संघर्ष 1914 में शुरू हुआ. अय्यनकाली ने अपने समुदाय की स्त्रियों से कहा कि वे गुलामी के प्रतीकों को उतार फेंकें. दक्षिण त्रावणकोर की पुलय स्त्रियों ने ऐसी मालाएँ फेंक दीं और उपरिवस्त्र (ब्लाउज) पहनना शुरू कर दिया. अय्यनकाली के आह्वान पर पुलय पुरुषों ने चप्पल-जूते पहनना और छाते का इस्तेमाल आरम्भ कर दिया.25 नायरों को अछूतों का यह साहस बहुत आपत्तिजनक लगा. लेकिन अय्यनकाली की संगठन क्षमता और तैयारी के सामने वे इस परिवर्तन को रोक नहीं पाये. अभियान सफल रहा. लेकिन मध्य त्रावणकोर में नायरों ने जबर्दस्त विरोध किया. यहाँ के मशहूर पुलय नेता गोपालदासन जगह-जगह बैठकें करके कल्लुमाला प्रथा बन्द करवाने की कोशिश की. 24 अक्टूबर 1915 को पेरिनाड (किलों के समीप) हो रही बैठक पर नायरों ने हमला बोल दिया. इसके बाद पुलयों व नायरों में खूनी टकराव शुरू हो गया.26 किलों में पुलयों की एक सभा के दौरान नायरों ने हमला बोला और एक पुलय को बुरी तरह से पीट दिया. प्रतिशोध में पुलयों से जो बन पड़ा उन्होंने किया. हमलावर नायरों का नेतृत्व पुरु नायर कर रहा था. इसके गिरोह ने तमाम पुलयों की हत्या की और उनके घर लूटे-जलाये. पुलयों को भागकर एक चर्च में शरण लेनी पड़ी.

बाद में ये पुलय ईसाई बन गये.27 लूटमार का यह अभियान हफ्ते भर चला. पुलयों की तमाम बस्तियाँ उजाड़ दी गयीं. बदले में उन्होंने नायरों की सम्पत्ति को आग के हवाले किया. मध्य त्रावणकोर के इस दंगे ने समूचे प्रदेश का ध्यान अपनी ओर खींचा. वहाँ के पुलय नेताओं ने बुलावे पर अय्यनकाली अपने सहयोगियों चोटि और विसागन तेवन के साथ दंगाग्रस्त इलाके का दौरा किया. एक मेमोरंडम तैयार करके उन्होंने त्रावणकोर के तत्कालीन दीवान मन्नत कृष्णन नायर को सौंपा. दीवान ने नायर समुदाय के कुछ प्रबुद्ध नेताओं से मिलकर समझौते की राह निकाली. किलों में दोनों समुदायों की सम्मिलित सभा हुई. इसकी अध्यक्षता चंगनस्सेरी परमेश्वरन पिल्लै ने की. इसमें अय्यनकाली ने बहुत प्रभावशाली भाषण दिया. अन्ततः सैकड़ों पुलय स्त्रियों ने सार्वजनिक रूप से कुल्लुमाला उतार फेंकी.28 उन्हें मनोकूल वस्त्रा पहनने का अधिकार मिला. उन पर लादी गयी सामाजिक निर्योग्यताओं में कमी आयी. दलितों के लिए यह विजय ऐतिहासिक थी.

अय्यनकाली के नेतृत्व में केरल का दलित समुदाय अपने संघर्षों के बलबूते सामाजिक मुक्ति पथ पर आगे बढ़ा.

कहने को तो ब्रिटिश शासन ने यहाँ की न्याय-व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन किये थे लेकिन दलितों को इसका विशेष लाभ नहीं मिल पाया था. इस व्यवस्था में ऊपर से लेकर नीचे तक गैर दलित ही भरे थे. दलितों के प्रति उनका रवैया घोषित रूप से पक्षपातपूर्ण था. सरकार के नियम-कानूनों की जानकारी के अभाव में दलित अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर पाते थे और प्रायः पुलिस ही न्यायकर्ता के रूप में उन्‍हें दंड दिया करती थी. जो मुकदमे अदालत तक पहुँचते थे उनकी सुनवायी बड़े विचित्र ढंग से हुआ करती थी. दलितों को क्योंकि अदालत के बरामदे में भी पाँव रखने का अधिकार नहीं था, लिहाजा उनकी सुनवाइयाँ बाहर ही होती थीं. परम्परा यह थी कि अदालत में छुट्टी होने के बाद शाम को न्यायाधीश और अन्य कर्मचारी कोर्ट के अहाते के पेड़ के नीचे खड़े होते थे और वहीं खड़े-खड़े सुनवाइयाँ करते तथा निर्णय सुनाते थे. वादी-प्रतिवादी से जज का सीधा सम्वाद कभी नहीं होता था. कोर्ट का चपरासी सन्देश वाहक का काम करता था. पुलयों को एक निश्चित दूरी बनाकर रखनी पड़ती थी. इस व्यवस्था में अकसर उनके साथ अन्याय होता था. सुनवायी के इस तरीके में अपमान और अवहेलना अपरिहार्य थी. अय्यनकाली को स्वाभाविक रूप से यह व्यवस्था असहनीय लगती थी. उन्होंने इसीलिए एक वैकल्पिक न्याय-व्यवस्था शुरू की.

साधु जन परिपालन संघम् के तत्वावधान में दलितों के लिए ‘सोशल कोर्ट’ या ‘कम्युनिटी कोर्ट’ की स्थापना हुई. इसका मुख्यालय संघम् का (वेंगनूर) हेड ऑफिस था. संघम् की तमाम शाखाओं में कोर्ट की प्रशाखाएँ स्थापित की गयी थीं. अय्यनकाली इसके मुख्य न्यायाधीश थे. सरकारी नियम कानून ही ‘सामाजिक अदालतों’ के आधार थे. उन्हीं के अनुरूप कार्रवाइयाँ होती थीं. अनुभवी वकीलों की सहायता ली जाती थीं. दीवानी और फौजदारी के मुकदमे पहले सोशल कोर्ट की शाखाओं में चलते थे. अगर जरूरत पड़ी तो आगे की सुनवायी चीफ कोर्ट में होती थी. चीफ कोर्ट में अपील करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था. कोर्ट के हरकारे सहायक अदालतों तक मुख्य न्यायालय के निर्णयों और निर्देशों को पहुँचाते थे. कोर्ट की कार्यवाही के सुचारु संचालन के लिए क्लर्काें और वारंट सिपाहियों की नियुक्ति की गयी थी. कोर्ट परिसर में अनुशासन बना रहता था. घूस लेने-देने के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी थी. सभी निर्णय निष्पक्ष तरीके से होते थे. सहायक अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध मुख्य अदालत में अपील होती थी. अय्यनकाली की सहायता के लिए उनके निजी सचिव के रूप में केशवन थे. केशवन ही विधान परिषद (पॉपुलर असम्बली) में प्रस्तुत किये जाने वाले अय्यनकाली के व्याख्यानों को लिखित रूप देते थे. मेमोरेंडम तैयार करना भी उन्हीं का दायित्व था.

सोशल कोर्ट में सुनवायी हर शनिवार को हुआ करती थी. दोषी पाए जाने पर अदालत जेल के अतिरिक्त अन्य सभी दंड दिया करती थी. कठोरतम दंड के रूप में सामाजिक बहिष्कार का निर्णय सुनाया जाता था. वास्तव में अय्यनकाली द्वारा खड़ी की गयी यह न्याय-व्यवस्था समुदाय निर्माण और शिक्षा के प्रसार के मकसद से स्थापित की गयी थी. 29

अय्यनकाली के संघर्षो, आंदोलनों और अन्यान्य प्रयासों का सकारात्मक परिणाम जल्दी ही सामने आया. दलित समुदाय के बच्चे बड़ी संख्या में स्कूल जाने लगे. 1907 (साधु जन परिपालन संघम् का स्थापना वर्ष) में पुलय छात्रों की संख्या नगण्य थी. 1913 मेंं उनकी संख्या दो हजार पहुँच गयी और 1917 तक आते-आते यह संख्या अठारह हजार को छूने लगी. सिर्फ 1916 से 1917 के बीच पुलय छात्रों की संख्या में 62.9» का इजाफा हुआ. इस अवधि में ईषव छात्रों की संख्या मात्रा 10.3» बढ़ी. 30


महात्मा गाँधी जनवरी 1937 में अय्यनकाली से मिलने वेंगनूर पहुँचे. दोनों के बीच विस्तार से बातचीत हुई. अय्यनकाली ने दलित समाज में उच्च शिक्षा प्राप्त युवकों के अभाव की बात  कही. स्कूली शिक्षा की अब तक बेहतर स्थिति  हो गयी थी लेकिन ऊँची कक्षाओं में पुलय छात्रा नहीं जा पा रहे थे. अय्यनकाली ने इसके कारणों में अछूत छात्रों के लिए छात्रावासों का न होना बताया. आखिरकार, सरकारी सहयोग और संघम् की सक्रियता की बदौलत कई छात्रावासों का निर्माण हुआ. इस सुविधा का लाभ उठाते हुए बहुत से छात्रा उच्च शिक्षा में पहुँचे. दलित समाज में सबसे पहले टी.के. नारायणन और के.ए.तेवन ग्रेजुएट हुए. अय्यनकाली ने अपनी प्रखर अन्तर्दृष्टि से जान लिया था कि दलितों की सामाजिक गतिशीलता व वांछित परिवर्तन शिक्षा के जरिए ही सम्भव है. उन्होंने इसके लिए हर मुमकिन मौकों का सदुपयोग किया. स्वच्छता पर उनका ध्यान बराबर रहा और वे प्रायः सभी बैठकों में इसकी अपील करते रहे. दलित समुदाय के लोगों से उनका कहना था कि वे साफ-सुथरी भद्र पोशाक पहने, घरेलू झगड़ों में न उलझें और हर कीमत पर शराब से दूर रहें.31 अय्यनकाली के जीवनीकार चेंतारस्सेरी का कहना है कि उन्होंने दलित समाज की जो नयी छवि गढ़ी उसका तात्कालिक परिणाम यह निकला कि ऐसे ‘‘स्वच्छ’’ दलितों को अपने घर में बुलाना ‘सवर्ण’ परिवारों में ‘‘फैशन’’ बन गया.32 अपनी दिन-रात की कठिन मेहनत, दूरदृष्टि और संघर्ष-संगठन क्षमता के चलते अय्यनकाली ने सदियों पुराने सामाजिक परिदृश्य में उल्लेखनीय बदलाव ला दिया.

1912 के बाद श्रीमूलम प्रजा सभा में विभिन्न दलित जातियों के प्रतिनिधि मनोनीत होने लगे. उन्होंने अपनी-अपनी जातियों की समस्याएँ अलग-अलग उठानी  शुरु कीं. इससे साधुजन परिपालन संघम द्वारा निर्मित की जा रही दलित एकता में दरार आ गयी. तमाम दलित जातियों को मिलाकर जो बड़ा समुदाय बन सकता था उस प्रक्रिया में रुकावट आ गयी. संघम् के कई सदस्य अपने जाति-संगठनों में चले गये. इसका परिणाम यह हुआ कि साधु जन परिपालन संघम् पुलयों के संगठन के रूप में सिमट गया. अलग-अलग जाति समुदायों के स्वार्थों के टकराव ने इस प्रक्रिया को और तेज किया. अब अय्यनकाली भी हिन्दू पुलयों की बात करते सुने जाने लगे.33 दलित समुदाय के दुश्मनों ने जातिगत अंतरों को बढ़ाने में सक्रिय रोल अदा किया. सरकार की ‘असेम्बली’ में ज्यादा दिन तक रहने के कारण अय्यनकाली आक्रोशभरी भाषा का इस्तेमाल करने से बचने लगे. उनकी नयी छवि पुरानी से मेल नहीं खा रही थी. सरकार के प्रति नरम रवैये के कारण वे सत्ता-समर्थक दिखायी देने लगे.34 इस दौरान पुलय समाज में एक नये नेता का उदय हुआ. टी.टी. केशवन नाम के इस युवा नेता ने 1927 में शास्‍त्री की परीक्षा पास की थी. केशवन शास्‍त्री एक अच्छे वक्ता तथा कवि थे. नयी पीढ़ी उनकी ओर तेजी से आकर्षित हुई. परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि केशवन अय्यनकाली के विरोधी के रूप में देखे जाने लगे. श्रीमूलम पापुलर असम्बली में जब पुलय समाज के एक और प्रतिनिधि का नाम माँगा गया तो अय्यनकाली ने पी. जाॅन जोसेफ का नाम प्रस्तावित किया.  केशवन शास्‍त्री चाहते थे कि उनके नाम की संस्तुति की जाये. इस प्रसंग ने विरोध को दुश्मनी में बदल दिया. दुश्मनी बढ़ती गयी. यह भी गौरतलब है कि केशवन शास्‍त्री ‘हिन्दू मिशन’ के सक्रिय कार्यकर्ता थे. सवर्ण उनके जरिये अपना हित साध रहे थे.35 केशवन शास्‍त्री ने अपना अलग संगठन खड़ा कर लिया. दोनों नेताओं के बीच गहराती खाई को पाटने के लिए कोशिशें की जाने लगीं. त्रावणकोर के तत्कालीन दीवान सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर ने इनके बीच समझौता कराया. समझौते के अनुसार अय्यनकाली ने अपनी बेटी तंकम्मा का विवाह केशवन के साथ कर दिया.36 विवाह के बाद समीकरण बदल गये. अय्यनकाली के एक जीवनीकार अभिमन्यु ने लिखा है कि आर्य समाज, हिन्दू महासभा और केरल हिन्दू मिशन जैसे संगठनों के प्रति अय्यनकाली  के मन में नरम भाव पैदा हो गया.37 के. सारदामोनी ने बताया है कि 1939-40 के दौरान साधुजन परिपालन संघम् ठहर-सा गया और केशवन शास्‍त्री द्वारा स्थापित पुलय महासभा को खुला क्षेत्र मिल गया. 1939 में जब महासभा पंजीकृत हुई तो अय्यनकाली इसके पहले महासचिव बने.38 धीरे-धीरे उनकी खामोशी बढ़ती गयी. पुलय महासभा की युवा टीम मजबूत होती गयी. साधुजन परिपालन संघम् किनारे लग गया. युवाओं विशेषकर शिक्षित युवाओं को आगे ले जाने की अय्यनकाली की जो कामना थी वह कुछ इस तरह पूरी हुई!

सन्दर्भ
1. ‘इमर्जेंस ऑव अ स्लेव कास्ट’ (1980), के सारदामोनी, पीण्पी.एच, दिल्ली, पृ. 147

2. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर’ (2005), टी. एचण्पी. चेंतारस्सेरी, मैत्री बुक्स, तिरुअनंतपुरम्, पृ. 14

3. वही, पृ. 14

4. वही, पृ. 18. ‘अय्यनकाली: अ दलित लीडर ऑव ऑर्गेनिक प्रोटेस्ट’ (2007),
एम. निसार और मीना कंडसामी, अदर बुक्स, कालिकट, केरल, पृ. 70.

5. ‘अय्यनकाली: अ दलित लीडर ऑव आर्गेनिक प्रोटेस्ट’, पृ. 70.

6. वही, पृ. 71

7. ‘दलित डिसकोर्स एंड द इवॉल्विंग न्यू सेल्फ: कन्टेस्ट एंड स्ट्रेजीज, पी. सनल मोहन, पृ. 34. यह निबन्ध मेरे पास टंकित रूप में है. इसे मुहैया कराने के लिए मैं सनल मोहन तथा प्रमीला के.पी. का आभारी हूँ. एम. निसार की सूचना के अनुसार यह निबन्ध सीण्टी. कुरियन द्वारा सम्पादित ‘रिव्यू ऑव डेवलेपमेंट एंड चेंज’, मद्रास 1999 में प्रकाशित हो चुका है. देखें, ‘अय्यनकाली: अ दलित लीडर ऑव ऑर्गेनिक प्रोटेस्ट’, पृ. 69

8. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर ’, पृ. 15. केरल के प्रसिद्ध दलित रचनाकार आर. रेणु कुमार ने भी इस बात की पुष्टि की. रेणु कुमार से इस सन्दर्भ में एस.एम. एस के जरिये 13.05.2011 को बातचीत हुई.

9. ‘अय्यनकाली: अ दलित लीडर ऑव ऑर्गेनिक प्रोटेस्ट’, पृ. 72

10. ‘दलित डिसकोर्स एंड द इवॉल्विंग न्यू सेल्फ’, पृ. 37
 

11. वही, पृ. 37

12. ‘अय्यनकाली: अ दलित लीडर ऑव ऑर्गेनिक प्रोटेस्ट’, पृ. 77

13. ‘दलित डिसकोर्स एंड द इवॉल्विंग न्यू सेल्फ’ पृ. 37

14. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर’, पृ. 24

15. वही, पृ. 24

16. ‘अ सोशल हिस्ट्री ऑव मॉडर्न केरल’ (1988), लॉरेंस लोपेज, प्रकाशक-लारेंस लोपेज, त्रिवेन्द्रम, पृ. 163

17. ‘दलित डिसकोर्स एंड द इवॉल्विंग न्यू सेल्फ’, पृ. 38
18. ‘अय्यनकाली: अ दलित लीडर ऑव ऑर्गेनिक प्रोटेस्ट’, पृ. 81
19. वही, पृ. 81
20. ‘एस्सेज ऑन साउथ इंडिया’ (1976), सं. बर्टन स्टीन, विकास पब्लिशिंग हाउस प्राण्लि., नयी दिल्ली में शामिल जोआन पी. मेंचर और केण्रमन उन्नी का लेख‘अंथ्रोपॉलोजिकल एंड सोशियोलॉजिकल रिसर्च इन केरल: पास्ट, प्रजेंट एंड फ्युचर डिरेक्शन्स, पृ. 123
21. ‘दलित डिसकोर्स एंड द इवॉल्विंग न्यू सेल्फ’, पृ. 39
22. वही, पृ. 39
23. ‘इमर्जेंस ऑव अ स्लेव कास्ट’, पृ. 157-58
24. वही, पृ. 151-152. ‘साधुजन परिपालिनी’ पत्रिका के बारे में इससे अधिक जानकारी नहीं मिलती. मुझे यह भी ज्ञात नहीं हो पाया कि इस पत्रिका के कितने अंक निकले और कब? जो जीवनियाँँ पढ़ने को मिलीं उनमें इस पत्रिका पर विस्तार से नहीं लिखा गया है. चेंतारस्सेरी लिखित जीवनी में यह सूचना दी गयी है कि पत्रिका का प्रकाशन चंगनस्सेरी से 1916 में हुआ. इसके सम्पादक कालीचोतिकुरुप्पन थे. इसके नियमित लेखकों में चेम्पुमतर पप्पन और एम. गोपालन नायर थे. देखें, ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर’, पृ. 39. पत्रिका में प्रकाशित सामग्री, खासकर, छात्रों द्वारा लिखित रचनाएँ सामने लायी जाएँ तो  दलित साहित्य के उद्भव की पृष्ठभूमि को बेहतर ढंग से समझा जा सकेगा.
25. ‘रेलिजन एंड आइडियॉलॉजी इन केरल’ (1984) जेनेवीवे लेमर्सिनियर डी.के. एजेन्सीज, दिल्ली, पृ0 261.
26. ‘इमर्जेंस ऑव अ स्लेव कास्ट’, पृ. 152
27. आइडियॉलॉजी एंड सोशल मोबिलिटी: केस स्टडी ऑव महार एंड पुलयाज’, (1992) जोसेफ मैथ्यू, इंटर इंडिया पब्लिकेशन्स, नयी दिल्ली, पृ. 122
28. ‘दलित मूवमेंट इन साउथ इंडिया’, पृ. 395-96’, इमर्जेंस ऑव अ स्लेव कास्ट’, पृ. 153.
29. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर’, पृ. 32-35
30. ‘रेलिजन एंड आइडियॉलॉजी इन केरल’, पृ. 261
31. 29. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर’, पृ. 42-43
32. वही, पृ. 42
33. ‘दलित डिसकोर्स एंड द इवॉल्विंग न्यू सेल्फ’, पृ. 45
34. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर ऑव आर्गेनिक प्रोटेस्ट’, पृ. 91
35. ‘अय्यनकाली: द फर्स्‍ट दलित लीडर’, पृ. 45
36. वही, पृ. 45
37. ‘अय्यनकाली’ (जीवनी, मलयालम) अभिमन्यु, केरल संस्कारिक वकुप्पु, तिरुअनंतपुरम्, 1990, ‘अय्यनकाली द दलित लीडर ऑव आर्गेनिक प्रोटेस्ट’ पृ. 91 पर उद्धृत
38. ‘इमर्जेंस ऑव अ स्लेव कास्ट,’ पृ. 152

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